– आचार्यश्री ने लोगों को परिवार में रहते हुए अनासक्त रहने को किया अभिप्रेरित
– भुजवासियों पर बरस रही है सुगुरु की अमृतवाणी
– 17 को पूज्य सन्निधि में आयोजित होगा ‘उदयोत्सव’ कार्यक्रम
15 फरवरी, 2025 शनिवार, भुज, कच्छ (गुजरात)।
मानव जीवन में शरीर भी है और आत्मा भी है। जीवन तब तक ही रहता है, जब तक शरीर आत्मा से युक्त रहता है। जब आत्मा शरीर से निर्गत हो जाती है तो वह जीवन वहीं समाप्त हो जाता है। जीवन को चलाने के लिए आदमी को प्रवृत्ति करनी होती है। भोजन, कपड़ा, मकान, आभूषण, शिक्षा, चिकित्सा आदि-आदि अनेक रूपों में प्रवृत्तियां होती हैं। एक होती है-रागयुक्त प्रवृत्ति, आसक्तियुक्त प्रवृत्ति और दूसरी वीतरागता से युक्त प्रवृत्ति। आसक्ति से रहित प्रवृत्ति होती है। ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानों में पूर्णतया आसक्ति रहित प्रवृत्ति अथवा वीतराग प्रवृत्ति होती है। ग्यारहवां गुणस्थान उपशांत मोह गुणस्थान और बारहवां गुणस्थान क्षीणमोह गुणस्थान होता है। ग्यारहवें गुणस्थान में मोह शांत हुआ है तो वह वापस उदय में आएगा ही आएगा। इन गुणस्थानों में पाप कर्मों का उतना बंध नहीं होता, क्योंकि वहां मोह का संयोग नहीं होता। मोह का संयोग नहीं होता है तो पाप कर्मों का बंध भी नहीं हो पाता।
तेरहवें गुणस्थान में मन, वचन और काय की प्रवृत्ति से युक्त होने के कारण सयोगी केवली होते हैं और चौदहवें गुणस्थान में मन, वचन और काय की प्रवृत्ति से रहित अयोगी केवली होते हैं। चौदहवें गुणस्थान का बहुत स्वल्प काल होता है। इस प्रकार जीवन को चलाने के लिए आदमी को प्रवृत्ति करनी होती है। गृहस्थ जीवन के लिए रुपए का लेन-देन, व्यापार, धंधा, बिजनेस, खेती-बाड़ी, राजनीति, शिक्षा चिकित्सा की बात होती है। समाज में रहना होता है और पारिवारिक जीवन भी होता है। गृहस्थ जीवन में लौकिकता रहती है, भौतिकता रहती है। यहां कर्मों का बंधन भी हो सकता है।
इससे बचने के लिए आदमी को अनासक्त रहने का प्रयास करना चाहिए। अनासक्ति से किए हुए कार्य से मानों पाप तो लगता ही नहीं और यदि लगता भी है तो यथाशीघ्र झड़ भी जाता है। वह ज्यादा कष्ट देने वाला भी नहीं होता है। पाप कर्मों के बंधन से बचने एक सुन्दर उपाय है-अनासक्ति। गृहस्थ जीवन जीते हुए भी परिवार में रहते हुए भी आदमी को धाय माता की भांति अनासक्त रहने का प्रयास करना चाहिए। भोजन भी शरीर को पोषण देने के लिए करने का प्रयास करना चाहिए। बहुत ज्यादा आसक्ति के साथ भोजन करने से बचने का प्रयास करना चाहिए। जो भी प्राप्त हो गया, उसमें अनासक्ति रखने का प्रयास करना चाहिए। भोजन की निंदा और प्रशंसा दोनों से बचने का प्रयास करना चाहिए। आदमी अपने जीवन में निर्लिप्त और अनासक्त रहने का प्रयास करे, यह काम्य है।
उक्त पावन पाथेय शनिवार को भुज के ‘कच्छी पूज समवसरण’ में उपस्थित श्रद्धालुओं को जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमणजी ने प्रदान की।
आचार्यश्री की मंगल प्रेरणा के पश्चात समणी चौतन्यप्रज्ञाजी ने अपनी आस्थासिक्त अभिव्यक्ति दी। आचार्यश्री ने उन्हें मंगल आशीर्वाद प्रदान किया। मर्यादा महोत्सव व्यवस्था समिति के अध्यक्ष श्री कीर्तिभाई संघवी, भुज सभा के अध्यक्ष श्री वाणीभाई मेहता व श्री आदर्श कीर्ति संघवी ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी।
आचार्यश्री महाश्रमणजी की भुज पर अपार कृपा बरस रही है। आचार्यश्री महाश्रमणजी के दीक्षा कल्याण महोत्सव वर्ष पर संस्था शिरोमणि जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा द्वारा प्रस्तुत की गई महनीय परिकल्पना ‘आचार्यश्री महाश्रमण इण्टरनेशनल स्कूल’ भुज में भी साकार रूप लेगी। इस प्रवास को और विशेष बनाते हुए भुज में 17 फरवरी को लायंस चौरिटेबल ट्रस्ट द्वारा जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा ट्रस्ट को प्रदान की गई भूमि पर आचार्यश्री का पावन पदार्पण होगा। जहां आचार्यश्री के मंगल सान्निध्य में उदयोत्सव का कार्यक्रम होगा और स्कूल की भूमि पर शिलान्यास भी किया जाएगा।
