Jain Terapanth News Official Website

आदमी को सद्भावना का विकास करने के प्रयास करना चाहिए : आचार्यश्री महाश्रमण

Picture of Jain Terapanth News

Jain Terapanth News

– आचार्यश्री ने सद्भावना और शुद्ध भावों के विकास की दी प्रेरणा

– भुजवासी अपने आराध्य की मंगलवाणी का उठा रहे हैं लाभ

12 फरवरी, 2025 बुधवार, भुज, कच्छ (गुजरात)।
भुज की धरा पर मर्यादा महोत्सव, दीक्षा समारोह आदि अनेक आयोजनों सहित सत्रह दिवसीय प्रवास कर रहे जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, शांतिदूत, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने बुधवार को ‘कच्छी पूज समवसरण’ में उपस्थित श्रद्धालुओं को पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि यह पुरुष अनेक चित्तों वाला होता है। प्राणी के भीतर कार्मण शरीर होता है। जैन विद्या में पांच प्रकार के शरीर बताए गए हैं-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण। इनमें से औदारिक शरीर जो हमें दिखाई देता है। यह शरीर मनुष्य और तिर्यंच को प्राप्त है। यह ऐसा शरीर है, जिसके अस्तित्व में साधना करके आदमी इसी जन्म के बाद मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। दूसरा जो वैक्रिय शरीर होता है, वह देवों और नारकीय जीवों को प्राप्त होता है। उनके औदारिक शरीर नहीं होता है। आहारक शरीर केवल मनुष्य को ही होता है और वह भी हर मनुष्य को नहीं होता है। जो विशेष साधक अथवा साधु होते हैं, जिनमें आहारक शरीर रह सकता है। चौथा शरीर तैजस होता है। यह शरीर मनुष्य, पशु, देवों, नारकीय या यह कहें कि हर संसारी प्राणियों के होता है। वह सूक्ष्म शरीर होता है। पांचवां शरीर कार्मण शरीर होता है। यह सूक्ष्मतर शरीर होता है जो हर सांसारिक प्राणी को होता है।
यह कार्मण शरीर बड़ा महत्त्वपूर्ण है। हमारे भावों के जड़ में यह कार्मण शरीर है। यह शरीर मानों सभी का संचालन भी करता है। एक गति से दूसरे गति में ले जाने वाला और भेजने वाला कार्मण शरीर ही होता है। आदमी का भाव कैसा है, वह भी कार्मण शरीर ही होता है। इस कार्मण शरीर के कारण भावों की विकृति आ जाती है और आदमी के भावों की शुद्धि कार्मण शरीर के अप्रभावी होने के कारण बनता है। यह पुरुष अनेक चित्तों/भावों वाला होता है। आदमी कभी गुस्से में, कभी अहंकार, कभी छली बन गया तो कभी शांत भी रह सकता है।
आदमी को ऐसा प्रयास करना चाहिए कि जितना संभव हो सके, उसके भीतर दुर्भाव न आए और सभी के प्रति सद्भावना बनी रहे। धर्म की साधना और आराधना के द्वारा मोहनीय कर्म पर प्रहार किया जाता है तो दुर्भावना कम हो सकती है और आदमी को सद्भावना का विकास करने के प्रयास करना चाहिए। धर्म-अध्यात्म की साधना के द्वारा आदमी दुर्भावना से बच भी सकता है और विचारों की उन्नति भी हो सकती है।
सामायिक अपने आप में संवर है। यह न शुभ योग है और न अशुभ योग है। सामायिक संवर है। सामायिक के समय यदि कोई शुभ कार्य करें तो श्रावक को निर्जरा का लाभ प्राप्त हो सकता है। सामायिक से पुण्य का बंध भी हो सकता है।

इस पोस्ट से जुड़े हुए हैशटैग्स