साध्वी श्री लब्धियशा जी के सान्निध्य में आचार्य भिक्षु का 222वाँ चरमोत्सव भिक्षु बोधि स्थल, राजसमन्द में मनाया गया। साध्वी श्री लब्धियशा जी ने कहा -आचार्य भिक्षु की यात्रा विकास की यात्रा थी। विकास का पहला अक्षर वि अर्थात विवेक। विवेक के आयने में भिक्षु को देखे तो कहीं भी ऐसा प्रसंग नहीं मिलेगा कि उन्होंने स्खलना की हो। उन्होंने कभी प्रियता में अटक कर श्रेय का पथ नहीं छोड़ा। का – कार्यशीलता। आचार्य भिक्षु श्रम के देवंत थे। प्रतिदिन व्याख्यान, गोचरी, विहार आपका यह क्रम बराबर चलता रहा।
स – सहनशीलता। सहनं सर्वकष्टानां अप्रतिकार पूर्वकम। पांच वर्ष तक पूरा आहार पानी स्थान नहीं मिला। विरोधों का ज्वार भी भयंकर उठा पर सबको सहन किया। किसी का प्रतिकार नहीं किया। विरोधों को भी विनोद में बदल देते थे। कहते हैं आचार्य भिक्षु के जीवन का ताना अध्यात्म का था तो बाना संघर्ष का । उनका अधिकांश समय संघर्ष में बीता। बाह्य और आन्तरिक दोनों संघर्षाे में वे सदा विजयी रहे। ऐसे आत्मबली, साहसी आचार्य के प्रति आज अपने भावों की श्रद्धासिक्त श्रद्धांजली अर्पित करते हैं।
इस अवसर साध्वीश्री गौरवप्रभा जी, भिक्षु बोधि स्थल अध्यक्ष हर्षलाल जी नवलखा, महिला मंडल अध्यक्षा सुधाजी कोठारी, महिला मण्डल राजनगर ने सुन्दर गीत की प्रस्तुति दी। ज्ञानशाला के नन्हे-मुन्हे बच्चों ने ‘स्वामीजी का चरमोत्सव मनानी चाहिए’ सुन्दर कव्वाली की प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का संचालन साध्वीश्री कौशलप्रभा जी ने किया। मंगलाचरण केलवा से समागत मोटीबाई ने किया।
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