आध्यात्मिक होने का अर्थ है, अपने भीतर सम्राट होना। कोई व्यक्ति अपनी पूरी चेतना में क्या किसी ऐसे जीवन का चुनाव करेगा, जहां उसे कोई चीज किसी और से मांगनी पड़े? यह अध्यात्म नहीं है। यह वर्दी पहनकर भीख मांगना है। अगर आपको अपनी चेतना पर विजय पानी है, अगर आपको अपनी चेतना के शिखर पर पहुंचना है, तो वहां एक भिखारी कभी नहीं पहुंच सकता। गौतम बुद्ध ने केवल अपने भोजनन के लिए भिक्षा मांगी, बाकी चीजों के लिए वे आत्मनिर्भर थे। जबकि दूसरे सभी लोग भोजन को छोड़ बाकी सभी चीजों के लिए भीख मांगते हैं। अगर दूसरे इंसान को इसकी जरूरत है, तो आप उसे साथ दे सकते हैं, लेकिन आपको किसी के संग की जरूरत नहीं है। इसका मतलब है कि अब आप भीतर से भिखारी नहीं रह गए हैं। हो सकता है कि केवल बाहरी चीजों के लिए आपको बाहर संसार में जाना पड़े। यही परम मुक्ति है। वे एक निपट भिखारी से मिलने नहीं आने वाले। आप या तो उनसे उनकी शर्तों पर मिलें, या बस विसर्जित हो जाएं, बस यही दो रास्ते हैं। यही ज्ञान-मार्ग और भक्ति-मार्ग का मतलब है। ये शब्द मनीषीसंतमुनिश्रीविनयकुमारजीआलोक ने अणुव्रत भवन सैक्टर-24 के तुलसीसभागार मे कहे।
मनीषीसंत ने आगे कहा देखने में प्रेम या भक्ति का मार्ग बहुत ही आसान लगता है। यह आसान है भी, लेकिन इस मार्ग पर ज्ञान-मार्ग की अपेक्षा कहीं ज्यादा गड्ढे हैं, जिनमें गिरने का खतरा बना रहता है। ज्ञान-मार्ग पर आपको पता होता है कि आप कहां जा रहे हैं। अगर इस राह पर आप गिरते हैं, तो आपको पता चल जाता है। भक्ति में कुछ पता नहीं चलेगा। अगर आप किसी गड्ढे में गिर जाएंगे, तब भी आपको इसका अहसास नहीं होगा। यह ऐसा ही मार्ग है। आप अपने बनाए भ्रमों के जाल में फंसे होते हैं, और आपको पता नहीं चलता। ज्ञान में ऐसा नहीं है।
मनीषीश्रीसंत ने अंत मे फरमाया मन बहुत ही चंचल है। मन को वश करना अत्यंत कठिन है परंतु अभ्यास से यह भी सरल हो जाता है। हमें प्रतिदिन अपने कर्मों को याद करना चाहिए तथा अशुभ या पाप कर्मों के लिए पश्चाताप करना चाहिए। मन को समझाना चाहिए कि श्हे मन! तूने आज तक कितने ही अपराध किये, इन्द्रियों को विकारी बनाया है, बुरे मार्ग पर ले गया, अधरूपतन और बरबादी की। आश्चर्य तो यह है कि जीवन के अनमोल वर्ष बीत जाने पर भी अभी तक बुरे काम करने से पीछे नहीं हटता। परमात्मा का डर रख। परमात्मा पर विश्वास रख। परमात्मा हमारे प्रत्येक कार्य को देख रहे हैं। हे मन! अगर नहीं समझेगा तो तुझे स्वर्ग में तो क्या, नरक में भी स्थान मिलना मुश्किल हो जायेगा। तेरा तोते जैसा ज्ञान दुखों के सामने जरा भी टिक नहीं सकता। हे मलिन मन! तूने मेरी अधोगति की है। तूने मुझे विषयों के क्षणिक सुख में घसीटकर वास्तविक सुख से दूर रख के मेरे बल, बुद्धि और तंदरुस्ती का नाश किया है। तूने मुझसे जो अपराध करवाये हैं, वे अगर लोगों के सामने खोल दिये जायें तो लोग मुझे तिरस्कार व धिक्कार से फटकारेंगे।
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