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पदार्थों के उपभोग का हो अल्पीकरण : आचार्यश्री महाश्रमण

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– 12 कि.मी. विहार कर मुंद्रा नगर पधारे अणुव्रत अनुशास्ता

28 फरवरी, 2025, शुक्रवार, मुंद्रा, कच्छ (गुजरात)।
संत शिरोमणि अणुव्रत अनुशास्ता युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण जी अपनी धवल सेना के साथ कच्छ के नगर-नगर और गांव-गांव को अपने चरणों से पावन बनाते हुए जनता के मध्य नैतिक मूल्यों के जागरण एवं अहिंसक चेतना की जागृति का महनीय कार्य करा रहे हैं। इसी कड़ी में आचार्यश्री का आज मुंद्रा में पदार्पण हुआ। देश के सबसे बड़े वाणिज्यिक बंदरगाहों में पहचाने जाने वाला मुंद्रा पोर्ट भी यहीं स्थित है। प्रातः श्री ओपी जिंदल विद्या निकेतन सामागोगा से लगभग 13 किलोमीटर विहार कर आचार्यश्री यहां पधारे। विहार के दौरान भगवान महावीर पशु रक्षा केंद्र संस्था के स्थान पर गुरुदेव ने शुभाशीष प्रदान किया। एक जगह जैन साध्वीश्री जी भी गुरुदेव के दर्शन कर धन्य हुई। इस यात्रा के दौरान जगह-जगह जैन संप्रदायों के साधु-साध्वियों से आध्यात्मिक मिलन का क्रम निरंतर चल रहा है। जैन एकता के प्रबल संवाहक आचार्य प्रवर अपने दीर्घदृष्टि चिंतन से इस दिशा में एक नई रोशनी प्रदान कर रहे हैं। मुंद्रा के आर्ट्स एंड कॉमर्स कॉलेज में प्रवास हेतु गुरुदेव का पदार्पण हुआ।
धर्म सभा में आगम आधारित प्रवचन करते हुए आचार्यश्री ने फरमाया कि हमारी यह आत्मा अनंत जन्मों से परिभ्रमण कर रही है। जन्म-मरण का क्रम चलता रहता है। प्रश्न है कि यह बार-बार जन्म-मरण क्यों हो रहा है। इसका उत्तर है कि हमारे भीतर जो कर्म है, राग-द्वेष रूपी कषाय है उनके कारण यह जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है। मनुष्य के भीतर लोभ की वृत्ति है, क्रोध, मान, माया रूपी वृत्तियां हैं। इन सबमें लोभ सबसे बलवती वृत्ति होती है। गृहस्थ में घर, परिवार, पैसा, व्यापार आदि कितनी ही चीजें हैं कि व्यक्ति परिग्रह से मानों जकड़ा हुआ होता है। किसी में कम तथा किसी में ज्यादा हो सकती है। गृहस्थ और साधु में यही सबसे बड़ा अंतर है कि जो घर में रहता है वह गृहस्थ होता है साधु तो अनगार होते हैं अर्थात उनका अपना कोई घर नहीं होता। साधु के मालिकाना में कोई बिल्डिंग, मकान, मठ, आश्रम नहीं होता। यह साधु की आचार व्यवस्था होती है। साधु तो अनिकेत, अनगार होने चाहिए। यह एक बड़ा अंतर दोनों के मध्य है।
गुरुदेव ने आगे कहा कि कोई ऐसा गरीब हो कि उसके पास घर है ही नहीं तो क्या वह साधु की श्रेणी में आ जाएगा? नहीं, क्योंकि उसके भीतर घर की, पदार्थों की आकांक्षा तो है न। जिसके भीतर में किसी प्रकार आकांक्षा भी नहीं होती वह साधु होता है। साधु के सांसारिक संबंध नहीं होते। पारिवारिक रिश्ते-नाते सभी संन्यास जीवन के स्वीकार के साथ छूट जाते हैं। गृहस्थ की संबंधों की दुनिया होती है। साधु भिक्षाजीवी होता है। साधु स्वयं भोजन नहीं बनाते न बनवाते है वह तो भिक्षा के द्वारा प्राप्त आहार को ग्रहण करते हैं। स्वाधीनतापूर्वक जो इच्छा से त्याग कर दे वह त्यागी होते हैं। जीवन में अलोभ की चेतना जागे। गृहस्थ के लिए इच्छा परिमाण, भोगोपभोग परिमाण व्रत की बात आती है। पूरा नहीं तो उपभोग का अल्पीकरण तो करें। परिग्रह पूरा नहीं तो अल्पीकरण करंे। घर में पदार्थ अनेक हैं पर स्वयं के उपयोग की सीमा की जा सकती है। लोभ को कम कर व्यक्ति अपने जीवन को सार्थक बना सकता है। कार्यक्रम के तत्पश्चात आचार्य प्रवर ने कॉलेज के विद्यार्थियों को सद्भावना, नैतिकता एवं नशामुक्ति के संकल्प स्वीकार करवाएं।
स्वागत के क्रम में मुंद्रा नगरपालिका की मेयर रचना जोशी ने अणुव्रत अनुशास्ता का अभिनंदन किया। समस्त जैन समाज की ओर से भोगीलाल भाई मेहता, कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ. फफल शाह ने विचारों की अभिव्यक्ति दी।

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