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आदमी को अपनी इच्छाओं को सीमित रखने का प्रयास करना चाहिए : शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमण

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– डीसावासियों को निहाल कर गतिमान हुए ज्योतिचरण

– तीव्र आतप में शांतिदूत ने किया लगभग 12 किलोमीटर का विहार

– धवल सेना संग मालवापरा पहुंचे युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण

– श्री मालवापरा प्राथमिकशाला पूज्यचरणों से बनी पावन

3 मई, 2025, शनिवार, मालवापरा, बनासकांठा (गुजरात)।
जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा प्रणेता, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मानों गुजरात पर ऐसी महर कराई है कि पूरा गुजरात महाश्रमणमय बनता जा रहा है। तेरापंथ धर्मसंघ के एक वर्ष में आयोजित होने वाले समस्त कार्यक्रम और चतुर्मास प्रवास भी शांतिदूत ने गुजरात की धरा पर प्रदान कर दिए हैं। डीसावासियों को अक्षय तृतीया महोत्सव व मंगल प्रवास से तृप्ति प्रदान करने के उपरांत शनिवार को युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अपनी धवल सेना के साथ मंगल प्रस्थान किया। डीसावासियों ने अपने आराध्य के प्रति अपने कृतज्ञभावों को अभिव्यक्त कर पावन आशीर्वाद प्राप्त किया।
आचार्यश्री तीव्र गर्मी में भी निरंतर विहार कर रहे हैं और अपने आराध्य की मंगल आशीष की छाया में श्रद्धलुजन भी अपने आराध्य की सेवा में रत दिखाई दे रहे हैं। लगभग 12 किलोमीटर का विहार कर शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी मालवापरा में स्थित श्री मालवापरा प्राथमिकशाला में पधारे।
विद्यालय परिसर में आयोजित प्रातःकाल के मुख्य मंगल प्रवचन कार्यक्रम में समुपस्थित श्रद्धालु जनता को युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि आदमी के भीतर इच्छा जागती है। लोभ का भाव भी जागृत हो सकता है। शास्त्र में बताया गया कि एक लोभी आदमी को सोने और चांदी के असंख्य पर्वत भी मिल जाएं तो लोभी आदमी को संतोष नहीं हो सकता। ऐसा इसलिए होता है कि आदमी की इच्छाएं आकाश के समान अनंत होती हैं। दुनिया में आकाश से बड़ा कोई पदार्थ नहीं है। उसी प्रकार आदमी की इच्छाएं भी आकाश की भांति अनंत होती हैं। एक देश, राज्य, जिला और गांव की सीमा आ सकती है, किन्तु आकाश की सीमा नहीं प्राप्त होती।
आदमी को अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करने के लिए अपनी इच्छाओं का सीमाकरण कर लेना और अपरिग्रह का त्याग करने का प्रयास करना चाहिए। जहां तक संभव हो सके आदमी को अपनी इच्छाओं को सीमित रखने का प्रयास करना चाहिए। मनुष्य को अल्पेक्ष बनने का प्रयास करना चाहिए। जितना संभव हो सके अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण करने का प्रयास करना चाहिए। संतोष की साधना व भावना से लोभ रूपी वृत्ति पर नियंत्रण किया जा सकता है। मोहग्रस्त आदमी असंतोषी होते हैं और पंडित लोग संतोष को प्राप्त कर लेते हैं। संतोष को परम सुख भी कहा गया है। संतोष रूपी धन की प्राप्ति हो जाए तो सभी धन धूल के समान हो सकते हैं। इसलिए आदमी को लोभ रूपी वृत्ति को संतोष से जीतने का प्रयास करना चाहिए। कहा गया है कि जिसने संतोष कर लिया, उसके लिए सब जगह धन ही धन हो जाता है। संतोष से सुख और शांति प्राप्त हो सकती है और इससे आत्मा का कल्याण भी हो सकता है।
आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के उपरांत प्राथमिकशाला के प्रिंसिपल श्री अशोकभाई प्रजापति व श्री दिलीपभाई शाह ने अपनी अभिव्यक्ति दी और आचार्यश्री से मंगल आशीर्वाद प्राप्त किया।

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