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मोह, ममत्व और मूर्छा का परित्याग करे मानव : आचार्यश्री महाश्रमण

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– डीसावासियों को साध्वीवर्याजी ने भी किया संबोधित

– डीसावासियों ने आज भी अपने आराध्य के समक्ष दी अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति

1 मई, 2025, गुरुवार, डीसा, बनासकांठा (गुजरात)।
डीसा नगरी वर्तमान समय में अध्यात्म नगरी बनी हुई है। जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी धवल सेना के साथ विराजमान हैं। गत कल आचार्यश्री के मंगल सान्निध्य में डीसा में अक्षय तृतीया महोत्सव का आयोजन हुआ, जिसमें देश-विदेश के लगभग 450 श्रद्धालुओं ने अपने आराध्य को ईक्षुरस का दान देकर अपने व्रत का पारणा किया। वहीं डीसा के भी 17 श्रद्धालुओं ने अपने नगर में विराजमान अपने सुगुरु के चरणों में इस वर्ष व्रत सम्पन्न किया। ऐसे सुअवसर पर मंगल प्रवास प्राप्त कर डीसा के श्रद्धालु अतिशय आह्लादित हैं।
अक्षय तृतीया के बाद गुरुवार को अक्षय समवसरण में उपस्थित श्रद्धालु जनता को साध्वीवर्या सम्बुद्धयशाजी ने उद्बोधित किया। तदुपरांत युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अपनी अमृतवाणी का रसपान कराते हुए कहा कि मनुष्य का जीवन किस प्रकार से बनता है? यह एक प्रश्न हो सकता है। मानव जीवन आत्मा और शरीर के संयोग से बना है। आत्मा अलग और शरीर अलग वाला सिद्धांत आस्तिक विचारधारा का है। धर्म और अध्यात्म का ढांचा तभी सुरक्षित रह सकता है, जब आत्मा अलग और शरीर को अलग माना जाएगा। मृत्यु के बाद शरीर का भले नाश हो जाता है, किन्तु आत्मा का नाश नहीं होता। आत्मा अनश्वर है। अनंतकाल तक हमारी आत्मा बनी रहती है, आत्मा शाश्वत है। धर्म शास्त्रों में आत्मा को अलग और शरीर को अलग माना है। पाप-पुण्य का बंध, कर्म का फल भोगने की बातें बताई गई हैं।
आदमी को आस्तिकवाद को मानकर ही जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए। इसके लिए आदमी को अपनी आत्मा के कल्याण का प्रयास करना चाहिए। यह शरीर पुद्गल है। इससे जब तक कार्य किया जाता है तो तब तक इसकी देखरेख तो अवश्य करें, किन्तु इसके प्रति भी ज्यादा ममत्व नहीं रखना चाहिए। इसके साथ ही धन, संपत्ति, मकान, दुकान, रुपया-पैसा मृत्यु के साथ नहीं जाता है। इसलिए इनके प्रति भी ज्यादा मोह-मूर्छा और ममत्व से बचने का प्रयास करना चाहिए।
इसके लिए आदमी को धर्म की साधना करने और मोह, ममत्व और मूर्छा का परित्याग करने का प्रयास करना चाहिए और अपनी आत्मा के कल्याण के लिए प्रयास करना चाहिए। धर्म, ध्यान, साधना, आराधना, तपस्या के द्वारा आदमी को अपनी आत्मा को शुद्ध बनाने का प्रयास करना चाहिए। नहाना-धोना, भोजन-पानी आदि-आदि कार्य तो अस्थाई शरीर के लिए आदमी कार्य करता है, उसके साथ आदमी को अपनी आत्मा की निर्मलता के लिए धर्म और अध्यात्म की साधना में समय लगाने का प्रयास करना चाहिए।
जहां भी कार्य करें, व्यापार-धंधा कुछ भी करें, वहां ईमानदारी रखने का प्रयास करना चाहिए। जहां तक संभव हो सके, झूठ और चोरी से बचने का प्रयास करना चाहिए। जितना संभव हो सके, धार्मिक कार्यों के लिए समय निकालने का प्रयास करना चाहिए। परम पूज्य आचार्यश्री तुलसी ने अणुव्रत के रूप में ऐसा विधान दिया है कि जहां धर्म को अपने व्यवहार के साथ ही जोड़ लिया जाए तो उसमें अलग से समय भी लगाने की आवश्यकता नहीं होती है। प्राची मेहता ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। डीसा ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने अपने आराध्य के समक्ष अपनी भावपूर्ण प्रस्तुति दी। आचार्यश्री ने बच्चों को मंगल आशीर्वाद प्रदान किया। श्री अनिल मेहता ने गीत का संगान किया। ‘बेटी तेरापंथ की’ आयाम से जुड़ी डीसा की बेटियों ने भी आचार्यश्री के समक्ष अपनी प्रस्तुति दी।

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