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आगम की शिक्षाओं को आत्मसात करे साधु : आचार्यश्री महाश्रमण

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– 11 कि.मी. का विहार कर वासरडा में पधारे शांतिदूत

– चतुर्दशी तिथि के संदर्भ में आचार्यश्री ने चारित्रात्माओं को प्रदान की विविध प्रेरणाएं

11 अप्रैल, 2025, शुक्रवार, वासरडा, वाव-थराद (गुजरात)।
जन-जन के मानस को आध्यात्मिक गंगा के निर्मल जल से अभिसिंचन प्रदान करने वाले जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा प्रणेता, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने सुथार नेसेडी गांव से मंगल प्रस्थान किया। भाभर प्रवास के दूसरे दिन सायंकाल ही विहार कर आचार्यश्री यहां रात्रिकालीन प्रवास को पधारे थे। सुबह आचार्यश्री अगले गंतव्य की ओर पधारे। सुबह-सुबह का समय जो सुहावना नजर आ रहा था, सूर्य के आसमान में चढ़ने के साथ ही गर्म होता चला गया। सूर्य की तीव्र किरणें लोगांे को पसीने से नहला रही थी। समता के साधक आचार्यश्री महाश्रमणजी जनकल्याण के लिए अविचल भाव से गतिमान थे। मार्ग में अनेक स्थानों पर लोगों को आशीर्वाद प्रदान करते हुए आचार्यश्री लगभग ग्यारह किलोमीटर का विहार कर वासरडा में स्थित श्री वासरडा पगार केन्द्रशाला में पधारे। यहां से संबंधित लोगों ने आचार्यश्री का भावभीना अभिनंदन किया।
पगार केन्द्रशाला में आयोजित मंगल प्रवचन कार्यक्रम में समुपस्थित जनता को महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि दुनिया में मनुष्य हैं, पशु भी हैं और भी छोटे-मोटे अनेक प्रकार के प्राणी हैं। इन प्राणियों में मनुष्य एक उत्तम कोटि का प्राणी प्रतीत हो रहा है। उत्तम इसलिए कि साधना की उत्तम भूमिका पर आरूढ़ होने की क्षमता मात्र मनुष्य में ही होती है, ऐसा सिद्धांत है। मनुष्य के बाद पशुओं का स्थान आता है। गुणस्थान की दृष्टि से जीवन की चार गतियों की बात करें तो पहले मनुष्य गति, तीर्यंच गति, देव गति नम्बर तीन और नरक गति चौथे स्थान पर आती है। मनुष्य तो पहले गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक स्थान प्राप्त कर सकता है। पशु जो हैं, उन्हें पंचम गुणस्थान से ऊपर के गुणस्थान प्राप्त नहीं हो सकते। मनुष्यों में साधु भी मिलते हैं। कोई भी समय आ जाए, साधु हमेशा पूरी सृष्टि में कहीं न कहीं जरूर मिलते हैं।
संतों के होने से इस धरती पर मानों संतुलन बना हुआ है। दुनिया में केवल पाप ही नहीं, साधना करने वाले साधु भी होते हैं। साधु का जीवन साधनामय हो। साधु के जीवन में साधना का जितना विस्तार हो सके, करने का प्रयास करना चाहिए। साधु से कभी प्रमाद भी हो सकता है, किन्तु साधु को उसका प्रायश्चित्त लेने का भाव भी रखने का प्रयास करना चाहिए। जितना संभव हो सके, प्रायश्चित्त और प्रतिक्रमण के द्वारा अपनी आत्मा को निर्मल बनाया जा सकता है। प्रायश्चित्त हो जाता है तो साधु निरभार हो सकता है।
साधु के लिए कहा गया कि साधु तपस्या करने वाला, तपोमूर्ति होता है। साधु को तप करने में सजग रहने का प्रयास करना चाहिए। साधु के पास कोई संपत्ति, आश्रम आदि नहीं होता। साधु तो अपरिग्रही होता है। इस प्रकार साधु को आगम की अनेक शिक्षाओं को आत्मसात करने का प्रयास करना चाहिए।
आचार्यश्री ने चतुर्दशी के संदर्भ में हाजरी के क्रम को संपादित करते हुए समुपस्थित चारित्रात्माओं को विविध प्रेरणाएं प्रदान कीं। आचार्यश्री की अनुज्ञा से मुनिश्री मोक्षकुमारजी व मुनिश्री कैवल्यकुमारजी ने लेखपत्र का वाचन किया। मुनिश्री मोक्षकुमारजी को पांच कल्याणक व मुनिश्री कैवल्यकुमारजी को दो कल्याणक बक्सीस किए। उपस्थित साधु-साध्वियों ने अपने स्थान पर खड़े होकर लेखपत्र का वाचन किया।
आचार्यश्री के स्वागत में विद्यालय के प्रिंसिपल श्री प्रेमभाई चौधरी ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। दो चतुर्मास करने के बाद गुरुदर्शन करने वाले मुनिश्री यशवंतकुमारजी ने अपने हृदयोद्गार व्यक्त किए। मुनिश्री मोक्षकुमारजी ने अपनी श्रद्धाभिव्यक्ति दी। आचार्यश्री ने दोनों संतों को मंगल आशीर्वाद प्रदान किया।

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