– जन-जन को आध्यात्मिकता का लाभ देते हुए निरंतर गतिमान हैं ज्योतिचरण
– 13 कि.मी. का विहार कर कूड़ा जामपर में पधारे शांतिदूत
– विद्यार्थियों ने श्रीमुख से स्वीकार की संकल्पत्रयी
25 मार्च, 2025, मंगलवार, कूड़ा जामपर, कच्छ (गुजरात)।
जन-जन को आध्यात्मिकता का लाभ प्रदान करने के लिए जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा प्रणेता, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी गुजरात में निरंतर गतिमान हैं। कच्छ जिले का सौभाग्य है कि वह अभी भी पूज्य चरणों का अनुगामी बना हुआ है। मंगलवार को प्रातःकाल की मंगल बेला में आसमान में निकलते हुए सूर्य के समान धरा के महासूर्य भी अपनी श्वेत रश्मियों के साथ अगले गंतव्य की ओर प्रस्थित हुए। मार्ग में अनेक स्थानों पर एकत्रित जनता को मंगल आशीर्वाद प्रदान करते हुए शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी लगभग तेरह किलोमीटर का विहार कर कूड़ा जामपर में स्थित कूड़ा जामपर प्राथमिकशाला में पधारे। विद्यालय के शिक्षकों व विद्यार्थियों ने आचार्यश्री का भावभीना स्वागत किया।
विद्यालय परिसर में आयोजित मंगल प्रवचन कार्यक्रम में युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि ज्ञान और आचार-ये दो चीजें हैं। एक-दूसरे से संबंधित भी हैं और अलग भी हो सकती हैं। संबंधित इस प्रकार होती हैं कि पहले ज्ञान करने के बाद ही वह आचरणगत होता है। सेवा क्या, भक्ति क्या, निष्ठा क्या, श्रद्धा क्या-इन सभी चीजों का ज्ञान होता है तो फिर ये सभी चीजें आचार में आ जाती हैं। ज्ञान को इंजन मान लिया जाए तो आचार डिब्बों की भांति होता है। ज्ञान मानव जीवन को चलाने वाला होता है। आदमी को पहले जानना होता है, फिर कोई आचारण हो सकता है।
जिस प्रकार यदि रसोई बनानी है तो पहले रसोई बनाने का ज्ञान करना होता है, फिर रसोई बनाई जा सकती है। इस प्रकार ज्ञान हो गया तो सम्यक् आचार भी हो सकता है। ज्ञानपूर्वक आचार होता है तो आदमी का जीवन अच्छा बन सकता है। मानव जीवन में शिक्षा और चारित्र ये दोनों चीजें अलग होती हैं। जीवन में शिक्षा का अपना महत्त्व है तो चारित्र का अच्छा विकास होना भी आवश्यक होता है। चोरी से बचने, ईमानदारी रखने, अहिंसा का पालन, नशे से बचाव आदि अच्छे चरित्र निर्माण में सहायक होते हैं। ज्ञान के बिना आचार और आचार के बिना ज्ञान अधूरेपन की बात हो सकती है। ज्ञान और आचार की एकता होती है तो जीवन में पूर्णता की बात हो सकती है।
इसी प्रकार मानव जीवन में परस्पर सहयोग की बात भी आती है। शास्त्र में कहा भी गया है कि परस्परोपग्रहो जीवानाम्। आदमी को जीवन में परस्पर एक-दूसरे का सहयोगी बनने का प्रयास करना चाहिए। परिवार है, उसमें जो शरीर से सक्षम हैं, वे बाहर जाने, धन का अर्जन का कार्य देखते हैं, घर पर माता-पिता घर की सुरक्षा आदि पर ध्यान दे सकते हैं। शिक्षा देने, सार-संभाल करना भी कार्य हो सकता है। परस्पर सहयोग की भावना हो, जीवन में ईमानदारी हो, फालतू के लड़ाई-झगड़े से बचने का प्रयास हो। नशा से मुक्त जीवन हो तो आचरण की सम्पत्ति भी अच्छी हो सकती है।
एक विद्यार्थी में ज्ञान रूपी धन के साथ आचार और आचरण रूपी धन भी होता है, उस विद्यार्थी का सर्वांगीण विकास हो सकता है। विद्यार्थी का शारीरिक विकास हो, बौद्धिक विकास हो, मानसिक और भावात्मक विकास भी हो तो जीवन बहुत अच्छा हो सकता है। बच्चों का अच्छा आध्यात्मिक-धार्मिक और नैतिक विकास होता रहे।
मंगल प्रवचन के उपरांत आचार्यश्री ने समुपस्थित विद्यार्थियों को सद्भावना, नैतिकता व नशामुक्ति की प्रेरणा प्रदान करते हुए तीनों के संकल्प भी स्वीकार करवाए। विद्यार्थियों ने तीनों संकल्पों को सहर्ष स्वीकार किया। आचार्यश्री के स्वागत में शिक्षक श्री किरणभाई सोलंकी ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी।
