– शांतिदूत आचार्यश्री ने किया लगभग 12 कि.मी. का विहार
– खारोई के ग्रुप प्राथमिकशाला में किया एक दिवसीय प्रवास
24 मार्च, 2025, सोमवार, खारोई, कच्छ (गुजरात)।
आदमी के भीतर निष्ठुरता, आक्रोशशीलता भी हो सकती है तो करुणा और क्षमाशीलता भी हो सकती है। दया, अनुकंपा, करुणा, मैत्री-ये सभी अहिंसा के परिवार के सदस्य होते हैं। जिस आदमी में दया और अनुकंपा की भावना होती है, वह हिंसा के पापों से बच सकता है और अन्य पापों से भी बच सकता है। दया और अनुकंपा को व्याख्यायित भी किया जा सकता है। एक लोकोत्तर अनुकंपा-दया है तो दूसरी लौकिक दया व अनुकंपा है। जहां आत्मा की रक्षा की बात हो, पाप आचरणों से आत्मा को रक्षित रखने के रूप में दया, लोकोत्तर दया और शरीर की रक्षा तथा शरीर को बचाना लौकिक दया होती है। बाह्य संदर्भ में लौकिक दया और आंतरिक, आध्यात्मिक रूप में लोकोत्तर दया हो जाती है। साधु किसी को चोरी का, किसी को नशे का, किसी को हिंसा-हत्या से बचने का संकल्प कराता है तो यह साधु का लोकोत्तर दया का प्रयास है। एक गृहस्थ किसी भूखे को भोजन करा रहा है, सर्दी में किसी को कम्बल, वस्त्र आदि बांट रहा है, चिकित्सालयों में दवाईयां दिला रहा है, विकलांगों को ट्राईसाइकिल आदि बांटी जा रही है तो ये सभी उपकार लौकिक उपकार, दया होते हैं। किसी के आत्मा के संदर्भ में किया जाने वाला उपकार लोकोत्तर उपकार होता है। शरीर के संदर्भ में किया गया उपकार लौकिक उपकार हो जाता है।
इसी प्रकार एक लोकोत्तर दान और दूसरा लौकिक दान हो जाता है। दान के भी इस प्रकार दो भेद होते हैं। एक साधु को, संयमी को विशुद्ध रूप में आहार आदि-आदि का दान दिया जाता है और किसी व्यक्ति को धार्मिक, साहित्य, शास्त्र आदि का ज्ञान का दान देना भी लोकोत्तर दान होता है। साधुओं को स्थान आदि का दान देना भी लोकोत्तर दान है। प्राणियों को अभय दान देना छहकाय के जीवों को मारने का त्याग कर देना, लोकोत्तर अभय दान होता है। जो आत्मा के साथ जुड़े हुए कार्य लोकोत्तर दान, दया, उपकार, कार्य आदि लोकोत्तर की श्रेणी में तथा शरीर अथवा अन्य बाह्य संदभों में किया गया दान, दया, उपकार या कार्य लौकिक की श्रेणी में आता है। जो साधु तन-मन व वचन से किसी को दुःख नहीं देते, ऐसे अहिंसामूर्ति, दयामूर्ति साधुओं के दर्शन से भी कर्म झड़ते हैं।
ध्यान दे तो गृहस्थ आदमी अपने जीवन में जितना संभव हो सके अल्पता ला सकता है। गृहस्थ जीवन में जितना संभव हो दया, अनुकंपा, अहिंसा की चेतना को रखने का प्रयास करना चाहिए। जहां तक संभव हो सके, किसी को ज्ञान दे देना, किसी को अच्छे सन्मार्ग पर ला देने का प्रयास करना भी लोकोत्तर दया और उपकार भी किया जा सकता है। इस प्रकार आदमी को आध्यात्मिक उपकार भी करने का प्रयास करना चाहिए। उक्त उपकार, दया, अनुकंपा की पावन प्रेरणा जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, शांतिदूत, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने सोमवार को श्री खारोई ग्रुप प्राथमिकशाला में समुपस्थित श्रद्धालुओं को प्रदान की।
आचार्यश्री के स्वागत में ओसवाल समाज-खारोई की ओर से श्री मोतीलाल भाई नंदू ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। आचार्यश्री से मंगल आशीर्वाद प्राप्त किया।
इसके पूर्व सोमवार को प्रातःकाल की सुखद बेला में शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगल प्रस्थान किया। जन-जन के मानस का ताप और संताप हरते हुए मंगल प्रस्थान किया। लोगों को मंगल आशीष प्रदान करते हुए आचार्यश्री अगले गंतव्य की ओर बढ़ चले। स्थान-स्थान पर अनेकानेक लोगों को अपने दर्शन और मधुर मुस्कान के साथ आशीष प्रदान करते हुए युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी लगभग 12 किलोमीटर का विहार सम्पन्न कर खारोई गांव में स्थित श्री खारोई ग्रुप प्राथमिकशाला में पधारे। आचार्यश्री ने एक दिवसीय प्रवास किया।
