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मोहनीय कर्म पर विजय है परम जय : युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण

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महातपस्वी महाश्रमण का माण्डवी से मंगल प्रस्थान

– दो दिवसीय प्रवास प्रदान कर गतिमान हुए ज्योतिचरण

– 12 कि.मी. का विहार कर तलवाना पधारे शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमण

24 फरवरी, 2025, सोमवार, तलवाना, कच्छ (गुजरात)।
माण्डवीवासियों को दो दिन तक आध्यात्मिक खुराक प्रदान कर सोमवार को प्रातः जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा प्रणेता, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगल प्रस्थान किया। प्रातःकाल के समय समुद्र और नदी के मिलन स्थान माण्डवी का वातावरण बड़ा सुहावना था। मार्ग के अनेक स्थानों पर नवीन नावों के निर्माण का कार्य भी दृष्टिगोचर हो रहा था। स्थान-स्थान पर लोगों को मंगल आशीष प्रदान करते हुए आचार्यश्री अगले गंतव्य की ओर बढ़ते जा रहे थे। लगभग बारह किलोमीटर का विहार कर आचार्यश्री तलवाना में स्थित श्री मामल भवन में पधारे। आचार्यश्री का एक दिवसीय प्रवास इसी भवन में हुआ। भवन से जुड़े हुए लोगों ने आचार्यश्री का भावभीना अभिनंदन किया।
भगवान महावीर के प्रतिनिधि, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने श्रद्धालु जनता को पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि अपनी आत्मा पर विजय प्राप्त कर लेना परम जय की बात होती है। प्रश्न हो सकता है कि परम जय कैसे है? उत्तर प्रदान किया गया कि स्वयं को जीतने के लिए आदमी को मोहनीय कर्म को जीतना होता है। मोहनीय कर्म को जीतना इतना आसान नहीं है, जो इसे जीत लेता है, क्षीण कर देता है, उसकी परम जय होती है। जैन विद्या में आठ कर्म बताए गए हैं, उनमें एक है-मोहनीय कर्म। गुस्सा, अहंकार, घृणा, माया, लोभ, राग-द्वेष, मिथ्यादर्शन आदि सभी मोहनीय कर्म के परिवार के सदस्य होते हैं। जो मोहनीय कर्म को समाप्त कर दे, क्षीण कर दे। भगवान महावीर ने तपस्या और साधना करते-करते मोहनीय कर्म का नाश वैशाख शुक्ला दसमी को किया था। उस दिन भगवान महावीर की परम जय हो गई। मोहनीय कर्म को जीत लेना बड़ी साधना की बात होती है।
जो साधु बन जाते हैं, परिवार को छोड़ देते हैं, धन-संपत्ति छोड़ देते हैं। कष्ट का जीवन स्वीकार कर लेना बड़ी बात होती है। संपत्ति और सुख का परित्याग कर साधुत्व को स्वीकार कर लेना बड़ी बात होती है। संपत्ति होती है, लेकिन उसे छोड़कर साधु जीवन स्वीकार कर लेना कठिन होता है। कई बार बालक भी साधु बन जाते हैं, कई युवावस्था में साधु बनते हैं तो कई प्रौढ़ या वृद्धावस्था में भी साधु बनने वाले होते हैं। एक आत्मा को जीतने वाला अपनी इन्द्रियों को भी जीत लेता है, कषायों को भी जीत लेता है और उसकी परम जय हो जाती है। साधु का जीवन कुछ कष्ट का होता है, किन्तु चित्त समाधि प्राप्त हो जाती है। साधु वर्तमान में जीने और वर्तमान में संतुष्ट रहने वाले होते हैं, आत्मलीन हैं, उन्हें भीतर से सुख की प्राप्ति होती है। साधुत्व की प्राप्ति भी तभी होती है, जब मोहनीय कर्म हल्का होता है।
आचार्यश्री महाश्रमण जी ने आगे कहा कि यहां रहने वाले सभी जैन-अजैन लोगों में धार्मिकता बनी रहे, त्याग-संयम आदि की साधना चलती रहे, सभी अपनी आत्मा को जीतने की दिशा में आगे बढ़ें, यह काम्य है।
श्री मामल भवन की ओर से श्री सुरेन्द्र ढेढिया ने आचार्यश्री के स्वागत में अपनी भावाभिव्यक्ति दी और आचार्यश्री से मंगल आशीर्वाद प्राप्त किया।

 

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